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Dr Alka Mehta

Abstract

4.1  

Dr Alka Mehta

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जीवन है रंगमंच

जीवन है रंगमंच

3 mins
720


जीवन है रंगमंच हम सब कठपुतलियां हैं,

कितनी रंगबिरंगी औरकितने रंगोंवालियाँ हैं,

डोर हमारी है उस रब के हाथ,

नाच नचाये हम सबको वो दिन-रात,


कभी हमें मिले खुशियां और कभी गम,

हँसते हैं कभी और रोते हैं कभी हम,

अपनी ही मनमर्ज़ी से बदलते हैं

भाव हमारे जब बदले मौसम,


पर काठ की कठपुतलियां तो

होती हैं निर्जीव और बेजान,

दिखती हैं इंसानों-सी पर

हंस -रो नहीं सकतीं जैसे इंसान,


कठपुतलियों को बना सकता है

एक उत्तम कलाकार ,

उन्हें नचाने वाला होता है

सच में बड़ा ही होशियार,


काठ की कठपुतलियों से

होता है मनोरंजन अपार,

शिवजी ने रूठी पार्वती मनाने को

अपनाया यही हथियार,


जिस मालिक के हाथों में

होती है कठपुतली की डोर,

वही उसे नचाता है और इसके 

मनोरंजन से पैसे भी कमाता है,


आज़ादी का मतलब तो

कठपुतली जानती नहीं है,

हंसना, रोना, खाना और

पीना जानती नहीं है,


कपड़े पहने रंग-बिरंगे

और जहाँ टिका दो वहीँ टंगे,

अपनी मर्ज़ी से

हिलना-डुलना नहीं जानती,

अपने मालिक का हर कहना है मानती,


सच में कठपुतलियां

वाला है गज़ब का कलाकार,

कठपुतलियां नचाने वाला है

बड़ा ही होशियार,


जीवन है रंगमंच हम सब कठपुतलियां हैं,

कितनी रंगबिरंगी और कितने रंगोंवालियाँ हैं,

देखा है कुछ इंसान लालच में पड़कर बन जाते हैं

दूसरे इंसानों की कठपुतलियां हैं,


थमा कर दूजे के हाथों में अपना कण्ट्रोल

टिक नहीं पाते कहीं होते रहते सदा डांवाडोल,

रहती नहीं है उनके जीवन में आज़ादी

कर लेते हैं अपने हाथों अपनी ही बर्बादी,


कठपुतली सा जीवन ज्यूँ जीवन हो गुलामी का

देनी पड़ती है चाहे मन न हो सलामी का,

गौर से देखना कभी ये जीवन कैसा जीती हैं

इंसानों को कठपुतली बनाना कैसी रीति है,


देखा है मैंने इंसानी कठपुतलियां

लालच में गुलामी और बेजान-सा जीवन जीती हैं,

दिल में अपना दर्द छिपा कर होठों को

अपने सीकर कठपुतली सा जीवन जीती हैं,


जीवन है रंगमंच हम सब कठपुतलियां हैं,

कितनी रंगबिरंगी और कितने रंगोंवालियाँ हैं,

अरे इंसानों ! आज़ादी ही खो दी अपनी तो

जीवन में तुमने क्या पाया है, बहिष्कार करो

उसका जिसने तुम्हें ग़ुलाम बनाया है,


हंसी आती है और रहम आता है

उन्हें देखकर जीते हैं कुछ सुकून

पाने को जी रहे अपनी आज़ादी बेचकर,

जीवन में चुनना क्या है

ये तो हमारे हाथ है ग़ुलामों के लिए

कैसे बेकार दिन और रात हैं,


चुने न ऐसा कुछ की बाद में रोयें

हम मालिक सदा करता है ग़ुलामों पर सितम,

बनकर कठपुतली मिलती नहीं पहचान है

जीवन हो जाता नर्क सामान है,


क्यों बने तुम कठपुतली जब बन कर पैदा हुए थे

इंसान कठपुतली होती है सदा निर्जीव और बेजान,

कठपुतली बनने से अच्छा है बन जाओ मज़दूर

वर्ना अपनी सोच समझ से भी हो जाओगे दूर,


मनमानी करने को रहोगे नहीं स्वतंत्र

क्यों बना रहे अपने हाथों अपने

जीवन को परतंत्र,

कठपुतली सा जीवन होगा

जैसे कोई यन्त्र बटन दबाओ काम करवा लो

जब चाहे जैसे नाच नचवा लो,


समझा है कौन कठपुतलियों का

दर्द उनका मालिक होता है बेदर्द,

जैसे चाहे खींचता है उनकी डोर

जब तक चाहे खींचता है उनकी डोर,


थोड़ा सा दिमाग लगा लो

अपना जीवन तुम बचा लो ,

कठपुतली सा जीवन होता है

एकदम नकली हंस नहीं सकती रो

नहीं सकती अपने-आप कठपुतली,


जीवन है रंगमंच हम सब कठपुतलियां हैं

कितनी रंगबिरंगी और कितने रंगोंवालियाँ हैं।


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