एक और एक ग्यारह
एक और एक ग्यारह
इन आँखों के
पानी से कह दो
कि अब इनमें
न आया करें
जो बित गया
उन लम्हों को
एक और एक ग्यारह
बनकर न बहाया करें।
एक याद पुरानी बनकर
ऐसे न सताया करें
कितने भी हम पर
ये वक्त करले सितम
टूटेगें न आसानी से हम।
फौलाद का
दामन है मेरा
कह दूँ बेखौफ़
इस बेदर्द ज़माने से
क्या शिकवा करूँ।
और क्यूँ शिकायत
ये तो उसूल ए हकिकत है
गम तो उस दर्द का है
जो रह रह कर
ज़खमों पर नमक लगाते हैं।
