एक आह
एक आह
आँखों में समंदर और लिए बारिश की बूँदें
मैं, मेरी तनहाई और आसमान के परिंदे
जब भी करती हैं बातें खामोशियों में
ठंडी-से एक आह भर जाता है सीने में।
कभी वह पूछती है इस रुठी हुई नदी से
कैसे बहती चली है तू इन अनजाने राहों में
पत्थरों से टकराती हुई न दिशा, न मंजिल
जहाँ ले चलते हैं तुझे ये पहाड़ के आंचल।
काँटे भरी हैं राहों में कभी गिरती संभलती
पर्वतों के बांहों में चल चली मैं फिसलती
कभी कचरे के ढेरे कभी फूलों का बहार
कभी मासूमों की लाशें कभी जिंदगी बहाल।
कभी तुम कभी मैं और कभी तनहाई
बातें करते रहते हैं इस अनजान शहर में
कब बदलेगा मेरी चाह औ' मेरी तक़दीर
कब गाऊँगी मैं जीवन की संगीत मधुर।