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Bhawana Raizada

Tragedy

5.0  

Bhawana Raizada

Tragedy

दूध की भूख

दूध की भूख

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वो सुकुमार, वो निश्छल,

वो मेरे जीवन का अभिन्न अंग।

दो पंखुड़ियों सी गुलाब की,

महकती मुस्कान जीवन की।

वो नन्हें नन्हें हाथो से,

ठोकती ताल मेरी छाती की।

वो अश्रु की धारा विजय पताका,

बरबस होती सादगी।

मानो बरस रहे हों पत्थर,

कहीं से निकले कोई धार कहीं।

वो सुकुमार, वो नन्हीं जान,

नन्हा सा फरिश्ता और कुछ जाने नहीं।

आंतें अकुला रहीं,

भूख छटपटा रही।

कोई अमृत की धारा,

क्या कहीं से आ रही।

हूँ व्यथित, हूँ मजबूर,

हूँ नीरस सूखे पेड़ सी।

सूखी जड़, सूखा तना,

जैसे कोई सूखा कुआँ।

कैसे दे दूँ आँचल की छांव,

जिसमें तू बढ़ा दे पाँव।

शर्मिंदा हूँ न सकी तुझको वो,

जो मिटा दे दूध की भूख को।



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