दरिया लहू का
दरिया लहू का
फ़ितना उठा तो रज़्म-गह-ए-ख़ाक से उठा
सूरज किसी के पैरहन-ए-चाक से उठाय़
ये दिल उठा रहा है बड़े हौसले के साथ
वो बार जो ज़मीं से न अफ़्लाक से उठा।
सब मोजज़ों के बाब में ये मोजज़ा भी हो
जो लोग मर गए हैं उन्हें ख़ाक से उठा।
सूरज की ज़ौ चराग़-ए-शिकस्ता की लौ से हो
क़ुल्ज़ुम की मौज दीदा-ए-नम-नाक से उठा।
पूछा जो उस ने अहद-ए-जराहत का माजरा
दरिया लहू का हर रग-ए-पोशाक से उठा।।
