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दर्द है मगर स्वाभिमान है

दर्द है मगर स्वाभिमान है

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सम्मान के सूत में लिपटा दर्द

वही आंखें जानती हैं जिनसे बहता है

आख़िरी विदाई देते वक़्त

भूल जाना पड़ता है

कि क्या खो रहे हो,


याद रखनी है तो बस

इक्कीस तोपों की सलामी की आवाजें

पत्थर रखना पड़ता है कलेजे पर

सुखाना पड़ता है आंखों का पानी

मारना पड़ता है स्नेह को,


जो चला जाता है उसकी याद में

रो तो नहीं सकते पर

ख़ुद का कत्ल तो कर सकते हैं न !


शहीद की विधवा नहीं रोती

शहीद की मां नहीं रोती

शहीद की बहन की भी आंखों में

कैसे आ सकते हैं आंसू,


पिता तो शायद पत्थर है ही...

और शहीद के बच्चे

जब याद आता है उनका दर्द

तब कोई तसल्ली

मुंह में निवाला नहीं जाने देती।


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