दर्द और बेबसी
दर्द और बेबसी
दर्द और बेबसी
============
कैसे करूं बयां उस दर्द को
जिसके लिए शब्द कम पड़े सभी
शब्दों को बनाने वाले
क्या स्त्री बने हो कभी???
झेला है बलात्कार की पीड़ा को?
तन ही नहीं आत्मा तक को
कुचल देने वाली अपमान कि शीला को??
वो जो हरपल स्त्री को उसकी औकात बताते हैं
वो,जो कितने बलशाली हैं,बलात्कार कर जताते हैं
पुरुषत्व का झूठा दंभ फैलाते हैं
इनसे पूछे कोई आखिर ये जन्म कहां से पाते हैं?
क्यों ये खुद को श्रेष्ठ समझते हैं
और दूसरों के आत्म सम्मान को रोंदने में
खुद का सम्मान समझते हैं
अपनी नज़रों और नजरिए में कभी खोट
दिखता ही नहीं इन्हें,
औरत को चरित्र का पाठ पढ़ाते चलते हैं
विडंबना सबसे बड़ी यही है कि
इन अपराधों को करने की शए
ये कहीं ना कहीं अपनी परवरिश में ही पाते हैं
और बचने की कोशिश में ये जा
मां , बहन, या पत्नी की ओट में
छिप जाते हैं
इस समाज का हिस्सा होकर
इसे ना बादल पाने के दुख में
हम बहुत पछताते हैं
और इन दरिंदों की बलि
बार बार चढ़ जाते हैं
पर फिर भी समाज मौन रहता है
ना बुरा सच देखता है,
ना सच को सुनना चाहता है
बस सब अनदेखा करता जाता है
संवेदनओं की जगह यहां जख्मों
का भी व्यापार होता है
क्या हुआ ऐसा, ,, ? बलात्कार ही तो है;
इतना क्या रोता चिल्लाता है;
उसके बदले मुवावजे में दाम मिलेगा
कैसे बताएं ,इन्हीं के बहाने तो चुनावों
में भी मान मिलेगा
ये राजनीति का मुद्दा है
यहां पहले ये सोचना जरूरी है
की पीड़िता का जात धरम क्या पड़ता है
कोई नेता कुछ करेगा नहीं
बस कहेगा की हम शर्मिंदा हैं
जो निरपराध थी,उसे बर्बरता से मारा जाता है
अपराध करने वाले आज़ाद,और ज़िंदा हैं
जो शोषित हैं उन्हें बस बेबसी
और दर्द ही मिलता है,
हवस के मुकाबले यहां जीवन बहुत सस्ता है
स्त्री मरती है तो मर जाए
उसके मरने से क्या किसी की फर्क भी पड़ता है???
हर क्षण मानवता को कुचलने वाले
मानव कहलाते हैं
मानव को बनाकर शायद अब
विधाता भी बहुत, बहुत पछताते हैं।