पिता की अंतिम यात्रा
पिता की अंतिम यात्रा
मेरे पिता का अंतिम यात्रा का वह मंजर
आँखों में अश्क लिए दिल रो रहा था अंदर ही अंदर
मैंने अपने पिता के चेहरे को निहारा जैसे निहारती कोई माँ
परदेश जाते अपने जिगर के टुकड़े को कई बार चूमती उसका माथा
प्यार से स्पर्श कर गोद में सर रख विलाप करती मेरी काया
उस दिन मेरे पिता के कानो में लगातार फुसफुसा ती रही
छोटे अंतराल के दौरान ठीक उसी तरह किसी पादरी के समक्ष
याचक खोल देता है अपने अंतर्मन के संवाद
अपने पिता को सीने से लिपट कर लेटी रही
कुछ पल जैसे शांत शीतल जल में पडी कोई परछाई
पिता को याद कर उनसे बिछोह के दर्द को कहती चली कोई पुरवाई
अपने दुपट्टे को रह-रह कर फेरती रही पिता के बदन पर
ऐसे जैसे कोई बहन सहला रही हो सर अपने मेहनत कश भाई को
मुक्तिधाम के पुराने नीम के पेड़ के चबूतरे पर उनके पार्थिव शरीर पर
पंडित निर्देश अनुसार चंदन को लगा रही जैसे उबटन को लगा
दमकती माँ ये अपने राज दुलारे की संपूर्ण काया
इस सबके बीच चहल-पहल से दूर मेरे पिता निद्रा में लीन सोते रहे
कुछ एसे जैसे अंतर्ध्यान में मगन हो कोई योगी
विदा के अंतिम लम्हे में पिता ने मौत से नहीं मांगी
जाने की अनुमति न एकांत में छोड़ा कोई अपने प्रिय के नाम कोई संदेश
पिता के अवसान का वह शोक संतृप्त दृश्य मानो
मेरे दिल में जीवन पर्यन्त धंसा रहेगा जैसे बेलपत्र तोड़ते चुभ जाता अक्सर कोई काँटा
हरि बोल ध्वनि के मध्य स्तब्ध भावशून्य रह गई थी में
उस पल जैसे ओलावृष्टि के बाद पंछी चुपचाप निहारते अपने नीड़
बाबा के पंचतत्व में प्रसन्न मन से समाहित हुए
उस रोज एसे कि जैसे लौट रहा हो प्रवासी कोई पंछी उड़ान भरते हुए अपने देश
सच कहा है जन्म मृत्यु जीवन के चक्र यही जीवन का सत्य है
जलकर एक दिन राख हो जाना यही मूल्यवान अर्थ है।
