"भागता रहा जीवन भर"
"भागता रहा जीवन भर"
भागता रहा,मैं तो बस यूँ ही जिंदगी भर
खुद को तलाशता रहा,यूँही बाहर उम्र भर
कहीं नही मिला मुझको खुद का कोई घर
सबने ठोकरों में ही निकाला मुझे,दर बदर
कोई न निभाता यहां रिश्ते बिना मतलब
सब स्वार्थ चाशनी में डूबे हुए है,लोग गजब
उन्होंने फिर से कभी न किया मुझे,तलब
जब से हुआ मुफ़लिसी का मुझ पर असर
जिनका स्वार्थ पूरा न कर सका था,में नर
उन्होंने ही बाहर निकाल दिया,मुझे सदर
भागता रहा,में तो बस यूँ ही जिंदगी भर
सब ही अपने निकले,बस छलावे के शहर
जिनके लिये पाप कमाया,मैंने दरिया भर
उन्होंने सूखा दिया कंठ,दरिया बीच मगर
वो बेटे कहते है,आपने क्या किया,पापा
हम बच्चों के लिये,आख़िर जरा उम्र भर
तब लगने लगा,यह जीवन ही मण भर
सब रिश्तों में लगी हुई है,स्वार्थ नजर
उन्होंने ही मार दिया पीठ पीछे से,खंजर,
जिन पर भरोसा था,खुद से ज़्यादा भीतर
अब छोड़ दी साखी ने भी चलना वो,डगर
जिस पथ पर रात लूटती है,रोशनी फ़जर
कस ली मैंने भी अब,यहां पर बस कमर
जिंदगी जीऊंगा बस बनकर,अब निडर
सबने खूब लूटा समझकर भोला शजर
वो सुन ले,मेरी पत्थर जैसी भारी ख़बर
अब भागूंगा नही,सामना करूँगा जीभर
जैसे को तैसा जवाब दूंगा,दगा दिया गर
कस्तूरी मृग तू यूँही भटक रहा,दर-बदर
तेरे भीतर ही छिपा,तेरे सपनों का शहर
जो आये वो जाएंगे,सब मुसाफिर इधर
पर मृत्युपरांत भी रहता है,उनका असर
जो झूठ,फरेब,बेईमानी का काटते है,सर
उनके मरने के बाद भी रहते नाम,अमर
जो रखते है,सत्य स्वाभिमान का जिगर
वो अपने हाथों से लिखते,अपना मुकद्दर
याद रखना तम से कभी न हारती,किरण
झूठ को मिटा देती,आखिर,सत्य की किरण
मेहनत कर,तो साखी तू कर इस कदर
ख़ुदा भी कह उठे,क्या है तेरी इच्छा,नर
उनकी तलाश खत्म हो जाती,बीच समंदर
जो तूफ़ानों में बनते है,एक शांत सी लहर!