दरारों से झांकती धूप
दरारों से झांकती धूप
दरारों से झांकती धूप
धीमे से कुछ कह रही थी।
हैरान-परेशान सिर झुकाए
सहमी सिकुड़ी सी खड़ी थी।
रजत सी श्वेत सीधी पंक्ति
दरवाजे पर आंख गढ़ाए थी।
प्रवेश को व्यथित व्याकुल
कपाटों के बीच अड़ी थी।
चौखट पर मचल रही थी
ऊपर नीचे फिसल रही थी।
मिलन की आतुरता में
बेचैनी से तड़प रही थी।
उषाकाल से दर पर खड़ी
मिलन प्रतीक्षा रत थी।
बीच-बीच में पंजों के बल
उचक कर झांक रही थी।
उर्जित करने को आकुल
जी तोड़ प्रयत्न कर रही थी।
थक हारकर सिर पटक कर
वापस वृक्षों पर चली गई थी।
वृक्षों ने किया भरपूर स्वागत
गले मिल प्रसन्न हो रही थी।
नर की नादानी भरी कहानी
दरख़्तों से बयां कर रही थी।