मुट्ठी भर रेत
मुट्ठी भर रेत
पगडंडी के सहारे...
रेत के कुछ कणों को,
हवा इतनी दूर ले गई कि रेत अपना वजूद खोकर
बिछ गई वतन की राह पर
कांटों को ढककर
पैरों को आराम दे दिया
सूरज की तपिश से
स्वयं जलकर
कुछ अंदरूनी भाग
शीत ने सहेज लिया।
पर था दिल में सुकूं
किसी के काम आ गई।
रिश्ता बहुत गहरा है
रेत और पानी का
जाना चाहती है दूर रेत
पानी समय-असमय भिगोकर
फिर पकड़ लेता है।
पद चिह्नों के निशां
मिटा देता है।
मुट्ठी भर रेत
जब फिसली हाथ से
बड़ी गहरी सीख दे गई
चाहे कितना रखो छिपाकर
सब कुछ छूट जायेगा।
अंत समय कुछ न पास तेरे
तू खाली हाथ ही जायेगा।
