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Meera Ramnivas

Abstract

4  

Meera Ramnivas

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दोस्ती दरख्त से

दोस्ती दरख्त से

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बचपन में

पापा ने मेरे हाथों,

एक नन्हा पौधा

लगवाया था।

पौधे को सींचना

सिखाया था

मैं पौधे को सींचने लगा, 

देखभाल करने लगा।


पौधा बढ़ने लगा, 

रूप बदलने लगा।  

नई कोंपलों संग, 

नित बढ़ते देखता, 

पौधे से जुड़ गया, 

मेरा अनोखा रिशता।

स्कूल से आता,

उसके पास खेलता।

हवा सँग उसे, 

लहलहाते देखता।


हम दोनों साथ साथ जवां हो गये,

एक दूजे के समय के गवाह हो गये।

हम दोनों ने साथ बिताये पल अनंत, 

जीवन के सभी पतझड़ और बसंत।

मैं बालक से युवक बन गया, 

वो पौधे से वृक्ष बन गया

मैं गृहस्थ बन गया

वो दरख्त बन गया।


मेरे बच्चे इसकी छांव में खेले,

शाखों पर चढ़े उतरे झूला झूले।

बच्चे जवां हुए घर से दूर हो गये, 

जीवन की आपाधापी में खो हो गए

घर आंगन छोड़ गये

हम दोनों बुजुर्ग रह गए 

देखना तो दूर,

कभी कभार हो पाती हैं बातें, 

वार त्योहार पर सताती हैं यादें।  

 

मैं नीम संग बैठ जाता हूँ

पुराने एलबम देखता हूँ

अच्छे समय को,

याद करता हूँ। 

तन्हाई नीम संग,

बांट लेता हूँ ।  

हवा से जब भी सरसराते हैं पत्ते,

पेड़ पर जब भी चहचहाते हैं पंछी,

घर का मौन टूटता रहता है

आंगन जीवंत हो उठता है। 


लगता है जैसे,

पेड़ बतिया रहा है

मेरा एकांत बांट रहा है

पतझड़ में ,खरते हैं पत्ते, 

नीम से उड़ जाते हैं पंछी, 

पत्तों बिन नीम भी, 

उदास हो जाता है

पंछियों बिन नीम भी ,

अकेला हो जाता है।  


तब मैं, 

इसके पास बैठता हूँ 

ड़ाल पर, 

दाना पानी लटका देता हूँ

ताकि,  

पंछी आते जाते रहें

चहचहाते गाते रहें

यूँ एक दूजे का ख्याल 

रखते हैं हम

एक दूजे का मन

बहलाते हैं हम।।


   


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