दोपहरी अलसाई सी है
दोपहरी अलसाई सी है
दोपहरी अलसाई सी है
सो सो जाती है।
देख छाँव के दाँव धूप भी
नजर चुराती है।
चाँद सलोना, छत पर आकर
देता है ताने,
मैंने कैसे, मृगनयनी को
दिया रात जाने।
करुण हृदय को यह पीड़ा
दिन रात सताती है.....
दोपहरी..........।।
बोझिल कन्धे,स्वप्न उठाये
फिरते हैं मारे,
निठुर भाग्य की, अनदेखी से
हरदम ही हारे।
खड़ी सफलता देख दूर से
बस मुस्काती है....
दोपहरी...........।।
नदी स्वयं, पी गयी रात
अपने ही पानी को।
नहीं सूझते राग सुरीले
मन सैलानी को।
फिर भी बैठी गीत नेह के
कोयल गाती है.....
दोपहरी..........।।
जीवन बेल, हरित होकर भी
रहती मुरझाई ।
हृदय सिंधु में, रहती सूखी
स्वप्निल अमराई।
धड़कन केवल काल चक्र का
मन बहलाती है....
दोपहरी..........।।
