दियासलाई बन...!
दियासलाई बन...!
सुनो प्रिय मन......!
अब वक़्त बदल गया है
तो तू क्यूँ नहीं बदलता..?
वक़्त ख़ुद को जलाने का नहीं रे....!
अब तो वक़्त है दीया सलाई बन
दूसरों को तिल तिल जलाने का
अपने दर्द का हिसाब लेने का
आँसुओं के कर्ज़ को चुकाने का
बन्द कर अब घूंट घूंट कर सिसकना
और उठ जा नये संग्राम की तैयारी कर
सुन प्रिय मन...!
जाना तो है पर सुन ना..!
जाने से पहले कुछ करना भी तो है
सबका बही खाता भी तो बराबर करना है
समझा ना रोना नहीं
सिसकियों की सौगात बाँटना है दियासलाई बनकर.. !
हाँ...!
जाते जाते सब कर्ज़ तो अदा करना है ना..!