दिलरुबा
दिलरुबा
कड़ी धूप में ख़्याल-ए-यार को
ही सुकून-ए-क़ुर्बत समझ लिया।
हमने ख़ाक-ए-कूचा-ए-दिलबर को
ही इश्क़ की रहमत समझ लिया।
जो एक बार उनकी ख़ामोशी से,
सारे-आम हमारी बे-क़ैद गुफ़्तगू हुई।
सातों आसमां के सामने इस अदा को,
ही दास्तां-ए-नज़ाकत समझ लिया।
ज़िक्र-ए-आरज़ू-ए-ग़म का एक
क़तरा उन्हें छूना चाहता था।
उस बे-ग़ैरत के वजूद को मिट्टी में
मिलाना ही हसरत समझ लिया।
उनके दिल में जगह पाने के लिए
मंदिर जा रहे थे इबादत करने।
जो वो दिख गए त
ो उनकी झलक
को ही ख़ुदा की इनायत समझ लिया।
दम-बा-दम गुज़ारे है कई ज़माने बस
एक ख़्वाब-ए-तरब के इंतज़ार में।
उनसे एक बार हाथ मिलाया था हमने
उस छुअन को ही अमानत समझ लिया।
अब्र-ए-करम बेतहाशा बरसने लगे
फ़क़त पाज़ेब की छनछनाहट से।
जब उनकी जुल्फें माथे पे आ गिरी तो
हमने उस पल को ही क़यामत समझ लिया।
हमने हवा के हर टुकड़े पे उनका
नाम लिख दिया आंखों में मोहब्बत भर के।
फिर जहाँ भी उनके पैरों के निशां दिखे उस
जगह को ही क़ायनात समझ लिया।