आलिमे तन्हाई से बस एक दफ़ा हमें मिलवा दो कोई
आलिमे तन्हाई से बस एक दफ़ा हमें मिलवा दो कोई
आलिमे तन्हाई से बस एक दफ़ा हमें मिलवा दो कोई
मिरी रूह को आसमाँ जिस्म को कफ़न ओढ़ा दो कोई,
सूना पड़ा रहता है तपता रहता है शब भर आजकल
गरीबों मज़लूमों से पहले मिरे बिस्तर को दुआ दो कोई,
गला बैठ जाता है मुसलसल रोने से बड़ी नाइंसाफी है
गला घोंट कर बे-आवाज़ रोने की दवा बना दो कोई,
ज़ोर ज़बरदस्ती करते करते थक गया अपने ही साथ
इन मायूस आँखों का चराग़ शाम होते ही बुझा दो कोई,
बग़ीचे देखने की ख़्वाहिश से फ़ारिग हो चुका है मन
अब देखते ही लटकते फलों पर पत्थर बरसा दो कोई,
फटे पुराने कपड़े, टूटी चप्पलों से काम चल जाता है
बस एक झूठी रोटी कचरे के डब्बे में ढूँढवा दो कोई,
चारागर, दवाईयाँ, नासेह, काफ़िर रातें और प्यासी बाहें
जवानी में अब बस मिरी क़ब्र का नक्शा दिखा दो कोई,
