धर्म युद्ध
धर्म युद्ध
बिगुल बजा है युद्धघोष का, कर, अस्त्र-शस्त्र सब तैयार
रक्तरंजित हो जाये धरा भी, संग्राम की भर हुंकार।
मंडरा रहा है काल शत्रु पर, जो दे रहा ललकार
युद्ध का होता रूप भयंकर, उसे समझा-बुझा के टाल।
क्षमा, याचना की तब बात न होती, होता पूर्ण विनाश
धूमिल होता मान-सम्मान भी, जो होता पुरुष की शान।
समझ न आए जो शत्रु को, तो बोल उठे तलवार
अंग-अंग उसका छलनी होगा, फिर, शत्रु काल का बनेगा ग्रास।
शांत न होगी धधकती ज्वाला, जब तक न उनका पूर्ण सँहार
काल बनकर टूट पड़ेंगे, छुपने का नहीं मिले स्थान।
रक्षक भी बन जाता भक्षक, आती जब मातृभूमि पर आँच
जिंदा रहे तो उसकी सेवा करेंगे, नहीं तो स्वर्ग में मिले स्थान।
रणचंडी का शृंगार करेंगे, लेकर उसके प्राण
विजय तिलक करे रणचंडी भी, रख, होठों पर मुस्कान।