धर्म-कर्म -मर्म
धर्म-कर्म -मर्म
मानव अमूल्य जीवन,
धर्म -कर्म -मर्म के,
प्रश्न को
जब सुलझायेंगे।
जीवन में जब धर्म को
सही अर्थ में,
कर्म रुप में लायेंगे।
धर्म बांटता नहीं है।
धर्म तोड़ता नहीं है।
धर्म काटता नहीं है।
प्यार बांटता है।
यह मर्म ,
तभी जान पायेंगे।।
मानव अमूल्य जीवन,
जब धर्म -कर्म- मर्म
के प्रश्न को,
जब सुलझायेंगे।
सही मायनों में,
यह तीनों,
जीवन में तब आयेंगे।
धर्म के अर्थ का,
क्या ......?
अनर्थ कर डाला।
मंदिर -मसजिदों के नाम पर
आतंक कर डाला।
करना था कर्म,
जोड़ने का।
बांट -बांट के ,
सब को तोड़ डाला।
युगों युगों से लड़ता रहा।
अपने हाथों ही मरता रहा।
तरक्की को हथियार
बनाता रहा।
जीवन तो केवल प्रेम है।
यह मर्म ही न समझ पाता रहा।