वर्तमान-वर्णन
वर्तमान-वर्णन
विन्ध का कद बौना पड़ा
हिम भी सर्द, औंधा पड़ा ,
पड़ा रहा किसी कोने में
भयभीत, कहीं चित्कार कर।
छूटा , टूटा समन्वय सारा
सोता ,रोता रहा जग सारा ,
चिर चीर , बुलावा भेजा जो
अंबर खंडित होना चाहा ,
धरा ,धरा न रह जाए
व्यर्थ हीं व्यथा क्यों सीना चाहा।
जो रंध्र कहीँ है बंद होने वाले
एकाध बार सून होने वाले
सौ-सौ रण का भार वो
बोलो, कब तक सहने वाले ?
और प्रश्न आएँगे,
भ्रमित, मन कर जाएँगे
गीत-गगन को झुमाने वाले
मौन , स्थिर व अटल
जग को कैसे न हँसाएगें?
न हर्ष के दिन हैं ये
न विषाद पे सब ठीक हुआ है
ठिठक गए हैं वो भी ये जानकर,
कि जो हुआ फिर न है होने वाला
बस कुछ पल को लगा
शायद कुछ अधिक हुआ है।