मजदूर <-> मजबूर
मजदूर <-> मजबूर
ओस चाट, जी भिंगोता
घाम से गमछा तर हो जाता
तनिक ढील कर अंगोछा
कमर कसने तक,
साँस भर, सीने तक
मीलों तक चलता जाता।
अब और नहीं,
कुछ और सही
पेंचों में फँसता जाता
जी के जंजाल में जकड़े
तपीश न मिटा पाता।
तपते सूरज से आँख मिलाकर
लोर गरीबी के छिपा न पाता।
रूक जा,
मुड़ जा,
ग़र कहना आता
क्यूँ मुँह मलिन कर
कुछ और ,
उस ओर ,
बस चलना होता।
धीमे सही
दिखे छाले कभी,
फटे अंबर में
लगे ताले कहीं।
कम है,
बस कमी नहीं
सजदा कर
संजो कर
सुख चैन से
फिर जिद जुटाता
कुछ और
उस ओर
पाने तक,
दाने-दाने को
बस मीलों भर चलता जाता।
दो अंगुल, दस हाथ
न गिने कदम
वक्त लगे,
हलके कदमों से
नापा है
कहने को रह गया कम।
ढहते साँस सम्भाल
निकल गया तनिक दूर,
उमस से ज्यादा,
पाने को हो गया चूर।
कुछ और,
उस ओर
जुड़ जाने को
कह गया
बस कहता जाता
दो कदम,
चार कदम
न जाने कितने कदम,
जिसके दम पर
मीलों तक चलता जाता।
कुछ और
उस ओर
बस चलता जाता।