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Rajiv Jiya Kumar

Abstract

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Rajiv Jiya Kumar

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तुम हो कौन

तुम हो कौन

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खानाबदोश हम आज रूके यहाँ

कल की जगह होगी कहाँ

बस्ती बसेगी फिर ईक नई वहाँ

फितरत ईमान छोङ न हो कोई जहाँ

फिक्र रोटी की दो जून होगी

फिर न कभी

हँसते हँसते बसेगी नई हस्ती तभी

ईक यही बात सिखाती दिन रात

कर कृत्य हिस्से का पूरा चुप रह

अपनी युक्ति के संंग रह कर मौन,

पर हो कौन तुम 

कहते हो क्या हम तो गुमसुम 

सुन तेेेरी मतलबी धुुन

ईक कथन मेरी भी सुुन

छलकती है गगरी अधजल जब हो भरी

न समझ तू ईश है

मेरी समझ तू विष है

जी खुद और जीने दे हमें भी

बिन कहे समझ यह जीने की

ईक यही बस यही रीत है।।

         



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