नन्हे हाथ
नन्हे हाथ
शाखें भी इतराना भूल गई।
नन्हे हाथों को देखो तरस रही।
कच्ची केरी की बगिया में।
कहाँ वह मस्ती खेल रही।
झूले फिसल पट्टी की बातें।
उफ! दोनों रुठे लगते हैं ।
एबीसीडी भी कहां
बच्चों बिन अच्छे लगते हैं ।
मैदान विराने लगते हैं ।
चौके छक्के कहां दिखते हैं।
सूनी गलियां आहट को तरस रहीं ।
किलकारियां सुनने को देखो मचल रहीं ।
घर ही तो मैदान बना है।
बचपन भी देखो सिमट गया है।
कहां बच्चों की टोली है ।
मम्मी पापा संग ही अब होली है।