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Bhavna Jain

Abstract

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Bhavna Jain

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धोखे का प्यार

धोखे का प्यार

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चाहत थी बस साथ तुम्हारा

ना जानती थी क्या होती है दुनियादारी 

तुम्हारा दो पल साथ में बैठना 

भर देता था मेरा जीवन 

तुम्हारी नजरें जब देखती थी मुझे 

मानो पूरा शरीर छू लेती थी 

और मैं समा जाना चाहती थी 

उस प्रेम भरी आगोश में 

तुम्हारे इर्द-गिर्द ही संजोयी थी 

एक छोटी सी दुनिया मैंने 

नहीं जानती थी कि सब 

एक छलावा है ,,,,

नहीं जानती थी एक धोखे में 

जी रही हूं मैं ,,,,

जब समझा खुद को पाया 

उन दरिंदों के बीच 

भूखे - ललचाए जल्लादों की बीच 

बहुत डरावनी थी उनकी आंखें  

रुह को भी कपकपांने वाली  

जो नोचते हैं जिस्म को 

मगर रूह भी खत्म हो जाती है 

यादें सब मिट जाती है 

एहसास भी सारे लुट जाते हैं 

जिंदगी सिर्फ एक रीता लिबास बन जाती है 



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