देश मेरा बेहाल
देश मेरा बेहाल
सुबह-सुबह कुछ रंग दिखा है अख़बार में
आज फिर नया फूल खिला है,मज़हब के बाज़ार में।
तो देर किस बात की शौक से आओ,
तोड़ के कुचल दो इसे भी।
और सरेआम नीलम कर दो
इसे नफरतों के क़ारोबार में।
रंग केसरिया या हरा का नाम दे कर,
अनचाहा अंजाम दे दो।
और मौत के ठेकेदारों खुश हो जाना,
अपने-अपने संसार में।
तमाशाई न पूछना क्यों झुलस रहा
परिवार तेरा इस आग में।
कोई और आएगा आग बुझाने,
कल तक तुम भी थे इसी इंतजार में।
अब क्यों फफक-फफक कर
रो रहे हो बेटों-बेटियों के मज़ार पे।
तुम ही थे जिसे नाज़ था,
इन पंडितों और मौलविओं के इख़्तियार पे।
किसी के लिए वन्दे मातरम् कहना हराम है,
किसी को इसे हराम मानने वालों पे ऐतराज़ है।
कभी सोचा है, शरहद पे हर सिपाही क्यों चीख रहा है,
वन्दे मातरम् अपनी अंतिम पुकार में।
तुम्हारी ही नापाक़ सोच ने
टुकड़ों में बाँट रखा है हिन्दुतान को।
जब खुद पे बीतती है,
तब कहते हो क्या हर्ज है हिन्दू-मुसलमां के प्यार में।।