डर लगता हैं...
डर लगता हैं...
डर लगता है...
दिल की गहराई को कागज की सतह छूने से
अपने पंख खोलकर मुक्त या आवारा होने से
यू खुली आंखों से बेगानी नींद सोने से
डर लगता हैं खुद पे कब्जा खोने से
एक लफ्ज को दास्तां समझ, दिल में कैद करने से
फिर याददाश्त की आदत से, बार बार सिहरने से
तन्हाई को अलविदा कहकर, तमाशे में आहे भरने से
डर लगता हैं जमाने से यू बेवजह डरने से
अपनी कलम की धार को, जरा और तराशने से
मन का कहर एक बारी, स्याही के हिस्से सौंपने से
मगर फिर परदा डालकर, खुद ही से छुपने से
डर लगता हैं मन में चीख रहे एक सपने से।