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Chanchal Chaturvedi

Classics

5.0  

Chanchal Chaturvedi

Classics

दौड़ने की जिद

दौड़ने की जिद

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495


ज़िन्दगी से बहुत आगे दौडने की ज़िद थी तो बहुत कुछ पीछे छोडने की शर्त मान ली मैने...


सब कुछ पाने का जूनुन कुछ इस कदर रहा, की ना जाने कब खुद को ही खो दिया मैने...


पापा की खामोशियों को सूनने का हुनर था, माँ की आँखों को भी पढ़ना सीखा था मैने...


सफलताओ के शिखर पर यूं चढ़ी की ना चाहते हुए भी सब कुछ भूला दिया मैने...


वो भाई, बहनो, दोस्त, यारों के साथ हसी मजाक, वो खट्टी-मीठी नोंक-झोंक,,वो प्यार भरी तकरार ये कब छोड दिया मैने...?


इन बचकानी बातों के लिए वक़्त नहीं है मेरे पास कह कर खुद को कब इतना बड़ा बना लिया मैने...?


सारा शहर देखने की खातिर इन ऊँची ऊँची ईमारतों में इक ईमारत मेरी भी है, गांव के आंगन में पीपल तले बैठने की खातिर क्यूं इक घर नहीं बनाया मैने...


बड़े बड़े सपनों की आरजू में अक्सर ही अपनी और अपनो की छोटी छोटी खुशियों को रोंदा है मैने...


अब तनहाईयों में सोचती हूँ ना जाने सब कुछ पा लिया है या पाने के भ्रम जाल में सब कुछ खो कर ज़िन्दगी को जीया है मैने...


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