दान
दान
बस्ती से मासूम के रोने की आवाज़,
ये कलेजा देखिये, झकझोर देती है!
वो मेरा ख़ुद का नहीं है तो क्या, ये,
इंसानियत पर, रिश्ता जोड़ देती है!
मुँह में ही जानेवाला था मेरे निवाला,
पर उन जाते हाथों को मैंने संभाला!
उठाया अपना खाना और चल दिया,
उस रोने ने मेरा मन, यूँ बदल दिया!
पहुँचा उस आवाज़ को सुन-सुनकर,
बच्चा भूखों बिलख रहा उस घर पर!
मैंने अपना निवाला उसे सुपुर्द किया,
खाना क्या खानेवाला ये सुपुर्द किया!
उस बेवा का बच्चा, न भूखा सोयेगा,
उसके पेट का भार ये इन्सां ढोयेगा!
ये सोच के मैं फिर पेट बाँध सो गया,
पकवानों के स्वप्नों में, यूँ मैं खो गया!
कल फिर से, हाथ-गाड़ी को खींचूँगा,
अपने तन के पसीने से खाना सींचूँगा!
बुझेगी कल जा कर दो दिन की क्षुधा,
शायद पेट को मिले भोजन-रस-सुधा!
अब वो बच्चा भूख से कभी न रोयेगा,
ये मेहनतकश मज़दूर चैन से सोयेगा!