चली नदियाँ सागर की ओर
चली नदियाँ सागर की ओर
कलकल नदियाँ बहती चली यूँ सागर की ओर,
मंत्र-मुग्ध हरदम करे, मधुरम उसका यह शोर !
धरा हरित होने लगी अब नदी बहे जिस राह,
शहर-गाँव बसते गए सरिता का देख प्रवाह !
पर्वत से निकले जो यह नदी बहे अनवरत धार,
शांति रहती वहीं जहां मिलता प्रकृति का प्यार !
पीते जल सरिता का सभी रखना इतना ध्यान,
इसमें ना मिले अशुद्धि ना हो धरा का अपमान !
सूर्यदेव ढाते ज़ब कहर, वसुधा पर हो प्रकोप,
त्राहि-त्राहि मचने लगे सरिता होती जाती लोप !

