चली छूने आकाश
चली छूने आकाश
पैरो में घुंघरू बाँधकर
हाथों में हंटर थामकर, कहा गया नाचो
मैं नाची डर से तो हंसते हुए कहा गया
ये देखो कोठे वाली बाई
सिर झुकाकर धर्म की सुनी, सम्मान कर समाज की सुनी
बनी सेविका, घर की चाकरी खुशी खुशी
रही घर की चार दीवारी में, चूल्हा चौका और बच्चों की जिम्मेदारी में रही
गुस्से में कहते हैं चाटे जड़कर
औरत हो अपनी औकात में रहो
हंसी तो वैश्या कहा
झांका खिड़की से तो बेशरम
पूछ लिया जिज्ञासा से कुछ तो चरित्रहीन कह दिया
आवाज़ उठाई तो कहा, निकल जा मेरे घर से
छोड़ दूँगा तो दर दर भटकेगी
दहेज में जलाया गया
कोख में गलाया गया
आखिर कब तक सहती
आवाज़ तो उठानी ही थी कभी न कभी
मुझे न सही किसी गैर को
चीखी चिल्लाई तो कहा पागल है ये
फिर भी न डरी तो कहा, ऐसी औरतों से भगवान बचाए
मैंने पूछा आखिर क्या चाहते हो औरतों से
प्यार से बोला, सुंदर सुशील,
वंश बढ़ाने वाली, दहेज, सेवा, चरणों की दासी
पति को भगवान मानने वाली
अपनी इच्छाओं का गला घोंटकर
पति की इच्छाओं को अपनाने वाली
सहने वाली, सुनने वाली, प्यार बरसाने वाली
यही श्रेष्ठ स्त्री के लक्षण हैं
कहा गुस्से से मैंने, समाज तुम्हारा अभी स्त्रियों के योग्य नहीं हुआ है
बहिष्कार करती हूं तुम्हारा
उसनें चीखकर कहा "वैश्या कहीं की - - - - -
मैंने दो थप्पड़ जमाये
और तोड़ दी जंजीरें
जो कहना है कहता रहे
मैं चली छूने आकाश।
