चिनार
चिनार
श्रीनगर में
झेलम के किनारे
कुछ दूरी पर था मेरा घर,
घर के पीछे लगकर खड़ा था चिनार का वह पेड़
जो घर के ऊपरी हिस्से की
खिड़की खुलने पर मुझसे बातें करता था
बुलाता था अपने पास |
माँ कहती थीं,
यहाँ हम निशाने पर हैं
नहीं निकल सकते हैं घर से बाहर
डरकर बंद कर देती थीं वे
घर की खिड़की भी |उधर चिनार रोता था
इधर मैं |
हमारे रोने की आवाजें
दब जाती थीं धमाकों के बीच |
माँ चुप हो जातीं
मेरे इस प्रश्न पर
कि हम क्यों नहीं मिल सकते हैं
चिनार से |
फिर एक दिन
रात के अधेंरे में
छिपते-छिपाते पिता घसीट लाये थे हमें
इस नई जगह पर |
छूट गए थे मेरे खिलौने
मेरी गुड़िया उसी घर में |
माँ समझाती –
कुछ दिन की ही तो बात है
जब हो जाएगी शांति
तब चलेंगे फिर अपने घर
मिल जायेंगे तुम्हारे खिलौने
तुम्हारा चिनार भी |
अब जब बचपन छूट गया है
तब खिलौनों का कोई अर्थ
नहीं रहा मेरे जीवन में
वे कहीं भी पड़े रहें पर लाख कोशिशों के बाद भी
तड़पने लगती हूँ मैं अब भी
चिनार के लिए
सोचती हूँ
खिड़की से ही सही
पर क्या मैं देख पाऊँगी
उस चिनार को
अपनी अंतिम साँस के पहले
एक बार !