छुपा इश्क़
छुपा इश्क़
वो छत पर उसका कपड़े सुखाने आना
वो मेरा छुप-छुप कर उसे देखना
कहाँ वो समझ पाती थी और ना
मैं कभी बता पाया था
वो सूरज की पहली किरण सी
उजली सी मेरी आँखों को चमक दे जाती थी
वो फ़िज़ा से गुजरती उसके जिस्म की
खुश्बू मेरे तक आके मुझे मदहोश कर जाती थी
जब भी बाज़ार में निकलती थी वो
छुप-छुप कर बाइक लेके उसका पीछा करना
कहाँ वो समझ पाती थी और ना मैं बता पाया था
ऐसे में उसकी शादी हो जाना उसकी बिदाई में
मेरा छुप-छुप कर रोना काश !
मैं उसे बता पाता तो आज शायद वो मेरी होती।

