चाय और इंतज़ार
चाय और इंतज़ार
अब मैं चाय अच्छा बना लेता हूँ,
क्योंकि साथ पीने वाला कोई नहीं रहता
जो कह सके—
“चीनी थोड़ी कम,
और अदरक के साथ इलायची डाल देना।”
अच्छी बनी है या नहीं—
ये कहने वाला कोई नहीं,
इसलिए कभी फीकी, कभी तीखी,
हर स्वाद अब अच्छा लगने लगा है।
बनाना इसलिए भी सीख गया हूँ,
क्योंकि पीना तो मुझे ही है।
कभी उबाल ज़्यादा,
कभी कम रह जाता है,
फिर भी रंग इतना आ ही जाता है
कि चाय, चाय जैसी दिखने लगे।
चाय के साथ
पसंद का गाना सुन लेता हूँ,
तो चाय में जो कमी है
गाने की धुन पूरी कर देती है।
अब शाम ढलते
किसी का इंतज़ार नहीं करता—
जो कहे, “आइए,
चाय साथ पीते हैं।”
हाँ, चाय की घूँट लेते हुए
आसमां में लौटती चिड़ियों को देखता हूँ।
वे दिनभर भटक कर
अपने घोंसले लौटती हैं,
क्योंकि उन्हें यकीन है—
कोई उनका इंतज़ार कर रहा है।
शाम ढलते ही
आसमाँ में तारे निकल आते हैं।
कुछ तारों को देख कर सोचता हूँ—
इतना दूर रहकर किसका इंतज़ार करते होंगे
जो रोज़ रात को जगमगाते हैं।
चाँद का इंतज़ार अब नहीं करता,
क्योंकि मेरे हिस्से में
अब चाँद नहीं आता।
चाँद निकल भी आए तो
छा जाते हैं घने बादल,
और छुप जाता है चाँद
कभी इंतज़ार भी किया
बादलों के छँट जाने का,
मगर बादल नहीं छँटते,
बस हो जाती है बारिश।
बारिश होते ही
मन करता है एक और चाय हो जाए,
शायद चाय बनने तक
बारिश थम जाए,
और चाँद फिर से निकल आए।
उसके इंतज़ार में
कविताएँ लिखता हूँ।
लिखते-लिखते कट जाती है रात—
मेरे हिस्से का चाँद
कभी नहीं आता,
और हो जाती है सुबह।
सुबह होते ही बना लेता हूँ चाय,
और निकल जाता हूँ कभी भी ,अपनी ही मस्ती में
