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Ravi Purohit

Abstract

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Ravi Purohit

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बुढ़ाते पेड़ की कोठर में

बुढ़ाते पेड़ की कोठर में

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संस्कारों के

सम्बन्धों के

लोक मर्यादाओं के

पारिवारिक समृद्धि के

निरामय काया के

सम्भावनाओं के


जिम्मेदारियों के

इज्जत और सम्मान के

कितने बरगद लगाओगी

ऐ लता !

कितनी टहनियां सम्भालोगी ?


कब तक सह पाएगा

तुम्हारा यूं टूट-टूट बिखरना

और जिद्द से फिर उठ खड़ा होना

स्वयं के ‘स्वः’ की खाद

कब तक दोगी आखिर


नाम बदला

सम्बोधन बदला

जाति बदली

और तो और

खुद का होना ही नकार दिया तुमने


देखो लता !

तुम्हारी जर्जर काया

और निढाल होते अहसासों को अनदेखा कर

बरगद में


एक और बरगद निकल आया

रहम करो नाजुक गमले पर

वरना भरभरा कर बिखर जाएगा

यह जीर्ण-षीर्ण गमला

देखो !

बूढाते पेड़ के कोठर में

हरियल कौंपल

फिर मुस्कुराना चाहती है।


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