बटुए की जयकार
बटुए की जयकार
एक बार आधी रात मे,
पति पत्नी के संग्राम में।
कोई विजय उत्सव मना रहा था,
बटुआ बैठा मुस्कुरा रहा था।
पत्नी की शिकायत थी ऐसी,
बटुए के जयकार की जैसी।
क्यो खाली है बटुआ तुम्हारा,
बताओ कितना है खर्च तुम्हारा।
मुझसे तो सौ बहाने बनाते,
सारे पैसे कहाँ उड़ाते।
पति ने फरियाद लगाई,
अपनी व्यथा कुछ यूं सुनाई।
जब तुम बाजार को जाती,
जाने कितने भाव लगाती।
बटुआ मेरा सहम सा जाता,
खालीपन फिर उसे डराता।
अब तो तुम भी कमाती हो,
मुझ पर धौंस जमाती हो।
बात सुन पत्नी मुस्कुराई,
एक पुरानी बात बताई।
यह तो एक अधिकार है,
जन्मसिद्ध व्यवहार है।
चाहे नारी कितना भी कमाये,
आत्मनिर्भर बन कितनी इतराये।
बटुआ तुम्हारा ही बढ़ाता है शान,
इससे ही है मेरा अभिमान।
