किस्मत एक ताना...
किस्मत एक ताना...
किस्मत ..
अजीब सा एक ताना हैं न....
तुम आये थे
लगा सबकुछ मिल गया
लगा मेरे साज सिंगार के लिए
सिर्फ तुम ही ..तुम हो..
याद हैं न
अक्सर तुम्हारे नाम की मेहंदी
अपने हाथों में लगा लेते थे
और
तुम्हारे कितने भी मसरूफ होने पर भी
तुम्हें तंग कर के दिखा ही दिया करते थे
वो जो पायल तुमने अपने हाथों से
मेरे पैरों में पहनाई थी न
वो अब शिकायत करती हैं मेरे
बिन पायल के पैरों से
कहती हैं कि,
वो झनकार कहा छोड़ आयी
जिसको तुम अक्सर चुमा करते थे..
वो जो हम चूड़ियाँ खरीदने गए थे न
उन चूड़ियों से ज्यादा अपना कुछ लगा था
वो जो
चूड़ीवाले तुमसे पुछा था न के
भाभी पर कौन सा रंग भाता है
और तुमने लाल रंग की चूड़ियों की ओर इशारा किया था..
सूट भी कहाँ अब पसंद आते हैं
कभी कुछ खरीद नहीं पाते हैं
जो भी तुमने खरीद के दिया था न
एक बार भी उन्हें मैं पहन ना सकी
सारे ही तो तुमने अपने हाथों से ही
गंगा माँ में समा दिया था ..
आखरी बचा वो मंगलसूत्र
जो तुमने अपने हाथों से मुझे सौंपा था न
कहा था तुमने
लौटकर बाँधोगे मेरे गले में
उसे भी तुम जाते - जाते
अपने फरेब से तोड़ गए थे ..
देखो ना,
अब सिंगार करना छोड़ दिया हैं
सब कुछ बस एक गाली सी लगती हैं
वो चूड़ियाँ , वो लाली, वो बिंदी,
वो पायल,
सबकुछ अपने तो हैं..
लेकिन अभिशाप से लगते है..
शायद कह सकते हो...
ना सुहागन हूँ .. ना विधवा हूँ ..
ना कोई चुनर हैं किसी के नाम की
मैं हूँ .. लेकिन ना हूँ..
कुछ ऐसे ,
मैं अपने किस्मत से हारी...