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Sapna K S

Classics

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Sapna K S

Classics

कैसे समझाऊँ तुझे...

कैसे समझाऊँ तुझे...

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कैसे समझाऊँ तुझे के,

मेरी खामोशी क्या कहती हैं तुमसे...

 तुम हर बार जो लफ्जों के बाणों का

प्रहार कर के निकल जाते हो न

बहुत अंदर तक चूब जाते हैं सारे

इतने अंदर तक के

मुझको अक्सर नि:शब्द ही बना कर छोड़ जाते हैं...


शायद नहीं जानती हूँ के तुम

किस पल क्या सोच रहें होते हो,

शायद नहीं समझ सकती तुम्हारे स्वभाव को के

तुम किस पल क्या मुझसे चाहते हो,

हर बार कुछ सुकुन के पल तुमसे चाहे है बस


लेकिन

बातें हमारी अक्सर तकरारों में ही खत्म हो जाती हैं,

जानती हूँ के तुम मेरे किसी भी दर्द के मरहम नहीं बनना चाहोगे

फिर भी ना जाने क्यूँ

दिल को तुमसे लगाव हैं

लेकिन हर बार तुम अपने मर्द होने का अधिकार

मेरी मुस्कुराहट पर लाद देते हो...


चेहरे को मेरे पढ़कर

पूछा करते हो अक्सर परेशान क्यूँ रहती हूँ मैं

लेकिन कभी अपनी जिद्द से बाहर आकर तुम

मेरी परेशानियों को कहने से पहले समझ सकते

जानती हूँ तुमने अक्सर बस मजबूरी ही समझा हैं मुझे

तुम कभी अपने होने के हक्क से मिलने आ ही नही सकते हो न


बस कुछ पल के लिए वक्त गुजारने का

आकर्षिक वस्तु तो नहीं हूँ ना मैं

शिकायत करूँ तुमसे तो किस हक्क से करूँ

ना तो इश्क हूँ तुम्हारा .. ना ही महबूबा...

हर पल तो तुमने झूठ और फरेब ही है समझा मुझे

या फिर मेरे स्वभाव में पागलपन ही दिखता रहा तुमको


लेकिन किसी भी बातों या हरकतों में

तुमने अपने लिए मेरा अपनापन और हक्क देख नहीं पाये न

शायद देखा भी होगा तुमने

लगा होगा पैर की जंजीर बन जाऊँगी मैं

लेकिन इज्जत की पगड़ी भी बन जाती

ये कभी सोच भी ना सकें तुम


किस बात पर रूँठ जाऊँ तुमसे

जो तुम स्वार्थ हो .. और मैं चुतियापा...

इब उदासी तुम पर अच्छी नहीं लगती

हँसना और हँसना चाहा था साथ मिलकर

ना बीते कल में .. और ना ही आनेवाले कल में


अब में जीने की कोशिश करना चाहती रहीं

रहना तो चाहा था तुम्हारे पास

लेकिन

बस....एक बार सहीं कह सकोगे ?

कितनी बार लौट आना होगा

तेरे हर बार ठुकराने के बाद.......


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