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Amit Kumar

Abstract Drama

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Amit Kumar

Abstract Drama

गांव से अनभिज्ञ

गांव से अनभिज्ञ

2 mins
330


आज गांव की बहुत

याद हो आई

पता नहीं क्यों

लेकिन आज हो आई

कुछ अलग सा लगता है

मुझे अपने ही में कहीं

जब भी गाँव याद हो

आता है कभी

मैं खुद में ही महीनों 

खोया सा रहता हूँ

जब भी गाँव याद

 हो आता है कभी

सच मानिये वो पगडंडियां

जो अब कच्ची मुँडेर सी 

ढह गयी हो मानो

और कच्ची निबोरी सी

उनकी वो कड़वाहट जो

हृदय को बड़ी पुरज़ोर

सुकूँ दिया करती थी

कोयल के अमवा की

डाल पर कूकने से

अब मीठा और शुद्ध शहद भी

अपना कहीं खो चुकी हो शायद!

और भी बहुत सी खटिया तोड़ बातें

गन्ने की की खुशबु से लबालब ईखें

और मक्का के दानेदार रवों से

लबरेज़ बालें आज भी मानो

मुझे पुकारती हो कहीं

माँ आज भी चूल्हे पर बैठी

गुड़ की चाय बना रही है

रातों को आज भी अलाव तापा

जा रहा है कहीं

मूंगफली और किस्से आपस में

समझौता सा कर बैठे हो मानो

लेकिन बहुत सी ऐसी बातें है

जो अब बातें ठीक से नहीं रहीं

बस एक अनोखा सा स्वप्न मात्र

रह गई है कहीं किसी कोने में

कोई कर भी क्या सकता है

वो पतंग के पीछे भागने वाला

मन आज भी कागज़ के पीछे ही

भाग रहा है बस इतना ही फ़र्क़

आया है दौड़ और तेज़ हो गई

जिस पतंग के पीछे भागे थे

वो दूर कहीं क्षितिज के उस

पार खो सी गयी है

अब कागज़ भी बदल गया है 

और पतंग भी बदल चुकी है....

     और कहीं इस सब में मैं

अपने को कहीं खोया सा

अनभिज्ञ सा और गुनहगार सा पाता हूँ

और शायद नहीं यकीनन

कसूरवार हूँ भी कहीं....

      


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