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Amit Kumar

Abstract Drama

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Amit Kumar

Abstract Drama

गांव से अनभिज्ञ

गांव से अनभिज्ञ

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आज गांव की बहुत

याद हो आई

पता नहीं क्यों

लेकिन आज हो आई

कुछ अलग सा लगता है

मुझे अपने ही में कहीं

जब भी गाँव याद हो

आता है कभी

मैं खुद में ही महीनों 

खोया सा रहता हूँ

जब भी गाँव याद

 हो आता है कभी

सच मानिये वो पगडंडियां

जो अब कच्ची मुँडेर सी 

ढह गयी हो मानो

और कच्ची निबोरी सी

उनकी वो कड़वाहट जो

हृदय को बड़ी पुरज़ोर

सुकूँ दिया करती थी

कोयल के अमवा की

डाल पर कूकने से

अब मीठा और शुद्ध शहद भी

अपना कहीं खो चुकी हो शायद!

और भी बहुत सी खटिया तोड़ बातें

गन्ने की की खुशबु से लबालब ईखें

और मक्का के दानेदार रवों से

लबरेज़ बालें आज भी मानो

मुझे पुकारती हो कहीं

माँ आज भी चूल्हे पर बैठी

गुड़ की चाय बना रही है

रातों को आज भी अलाव तापा

जा रहा है कहीं

मूंगफली और किस्से आपस में

समझौता सा कर बैठे हो मानो

लेकिन बहुत सी ऐसी बातें है

जो अब बातें ठीक से नहीं रहीं

बस एक अनोखा सा स्वप्न मात्र

रह गई है कहीं किसी कोने में

कोई कर भी क्या सकता है

वो पतंग के पीछे भागने वाला

मन आज भी कागज़ के पीछे ही

भाग रहा है बस इतना ही फ़र्क़

आया है दौड़ और तेज़ हो गई

जिस पतंग के पीछे भागे थे

वो दूर कहीं क्षितिज के उस

पार खो सी गयी है

अब कागज़ भी बदल गया है 

और पतंग भी बदल चुकी है....

     और कहीं इस सब में मैं

अपने को कहीं खोया सा

अनभिज्ञ सा और गुनहगार सा पाता हूँ

और शायद नहीं यकीनन

कसूरवार हूँ भी कहीं....

      


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