बोल.. कलियों के
बोल.. कलियों के


न जाने क्यूं.. ऐसा लगा की.. खिलती कलियों ने आज मुझसे कुछ कहा...
उनकी हर एक पहल में.. सिमटी पंखुड़ियों में पर निकले से थे.….
मानो वो कुछ चाहती बताना .. शायद ये. की मुझे पता नहीं.. खिल पाऊंगी या कलियों तक रह जाऊंगी...
फिर दूसरे पल.. कालिया के आस में झूम पड़ी..
शायद खिल के.. शायद खिलाकर शिव के मस्तक तक जाऊंगी...
ना जाने क्यूं..? थोड़ी देर में वो शांत शांत से होकर.. कहने लगी.. शायद सूरज की गर्मी में पिघलकर के.. सिमट धरती में जाऊंगी..!
थोड़ी देर.. में हर डालियों से आवाज आई...
शायद.. आशाओं से भर के.. प्रेम युगल तक जाऊंगी..!
और ...क
ुछ दिन की खुशियां; दुनिया भर की
कसमें और भ्रम में भरा भविष्य... फिर किताबों में पड़ी पड़ी.. मुरझाऊंगी..
और एक बात कि जैसे पुष्टि कर रही हो..
की. प्रेम में टिकना सीखो.. ये गिड़गिड़ाने, मिन्नतें करने.. शक या सम्मान करने से नहीं मिलता..
और तब मानो.. वो मुरझाया फूल से आवाज आ रही..हो
की ये दिल.. ले चल हमें उसी मोड़ पर जहां हम
गुमनाम तेरी धड़कनों से. .. और इश्क से अनजान थे...
लोग हर रोज तोड़ ले जाते है मुझे..
अलग - अलग ख्वाहिशों के साथ...
खिलने से मुरझाने तक शायद यही सोचती है.. हर कलिया....
बोल.. कलियों के