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Navni Chauhan

Tragedy

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Navni Chauhan

Tragedy

बोझ

बोझ

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हर हर्फ़ बन जाता है क़ातिल, 

जब बाण सा भेदा जाता है, 

अपनों की ज़ुबाँ से सीना, 

 जब छलनी हो जाता है। 


जहाँ जज़्बात बेमानी लगते हैं,

बुज़ुर्ग हों जब परेशानी लगते, 

मात पिता के गुरु शब्द जब, 

तीर- ताने लगते हैं, 

तो ज़हर उगलता काटें चुभोता 

जो बहुत सयाना दिखता है,

किसी गैर का नहीं होता, 

वो तो

अपना लहू होता है। 


जहाँ मार्गदर्शन के भाव को

सठियाना बताया जाता है, 

एक पल में जब भूल जाते, 

जनम जनम का नाता है। 


जहाँ सम्मान की धज्जियां

उड़ती हों, 

हर गालियों में चौबारों में, 

बुज़ुर्ग उतर आयें हों, 

वृद्ध आश्रम के गलियारों में, 

ममता, मानवता, करुणा, दया का, 

जब दिन- दिन उठता डेरा है, 

किसी गैर का नहीं होता, 

वो तो

अपना लहू होता है। 


अरे!

ये तो वही है न, 

तेरे जिग़र का जो

टुकड़ा था, 

हर लाचारी में जिसने, 

तेरा दामन पकड़ा था। 


देख न माँ, तू बोझ हो गयी, 

इस लाचार बुढ़ापे में, 

तेरी ममता तड़प रही

आश्रम के चौबारों में। 

देख न बापू,

बोझ हुआ तू, 

तेरे लाड- दुलारे का,

सारा जीवन बोझ उठाया, 

जिस प्यारे बेचारे का, 

कौन जाने किस किस कोख़ से, 

जन्म कुपुत्र का होता है, 

किसी गैर का नहीं होता, 

वो तो अपना लहू होता है। 



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