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Devendraa Kumar mishra

Tragedy

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Devendraa Kumar mishra

Tragedy

बोझ ढ़ो रहा हूँ

बोझ ढ़ो रहा हूँ

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बोझ से दुहरा हुआ, बदन लड़खड़ा कर गिर पड़ा 

फिर एक चाबुक पड़ी रोटी की 

और फिर डगमगाता हुआ उठा और चलने लगा 

ऐसे कि अब गिरा कि तब 

दम अब निकला ही समझो 

किन्तु भूखे पेट बच्चे, राह तकती चीथड़े में लिपटी पत्नी 

मरने नहीं देती, 

कर्तव्यों के नाम पर बस दो वक़्त की रोटी 

वो भी रूखी सूखी 

और जिम्मेदारियों के नाम पर एक आदमी से 

मजदूर, हमाल, नौकर 

न जाने क्या क्या हो गया मैं 

मैं खुद भूल गया कि मैं आदमी हूं 

बस बोझ ढ़ो रहा हूँ, जीवन की तरह।


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