बंधन
बंधन
ज़िन्दगी का यह कैसा मुक़ाम है
होठों पर हर पल तेरा ही नाम है,
क्यूँ अपने आप से यूं ही बुदबुदाने लगीं हूँ ?
क्यूँ महफ़िलें छोड़ तनहाइयों में जाने लगी हूँ?
इक पल को ज्यूँ ही खिलखिला कर हँसती हूँ,
तो दूसरे पल इन आँखों को अश्क़ों से भिगोतीं हूँ
नहीं जानतीं ए ज़िंदगी, किस दौर पर आ खड़ी हूँ ?
तन्हाइयाँ तब भी थी, तन्हाईयां अब भी हैं ,-पर अबके !
तेरे वाजूद ने मुझ पर अहसान किया है ,
मेरी तन्हाइयों ने तेरा ही आकार लिया है।

