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Asha Gandhi

Romance

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Asha Gandhi

Romance

बंधन

बंधन

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ज़िन्दगी का  यह कैसा मुक़ाम है 

होठों पर हर पल तेरा ही नाम है,


क्यूँ अपने आप से  यूं ही बुदबुदाने लगीं हूँ ?

क्यूँ  महफ़िलें छोड़ तनहाइयों में जाने लगी हूँ?


इक पल को ज्यूँ  ही खिलखिला कर  हँसती  हूँ,

तो दूसरे पल इन आँखों को अश्क़ों से भिगोतीं  हूँ


नहीं जानतीं  ए ज़िंदगी, किस दौर पर आ खड़ी हूँ ?

तन्हाइयाँ तब भी थी, तन्हाईयां अब भी हैं ,-पर अबके !

 

तेरे वाजूद ने मुझ पर  अहसान किया है ,

मेरी तन्हाइयों ने तेरा ही आकार लिया है। 


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