सँस्कार
सँस्कार
बाँह पकड़ जिसे चलना सिखाया था
रात रात भर जिसे गोदी घुमाया था
अपनी पसंद तो तब ,कुछ भी न होती थी,
उसकी खुशी मे ,हमारी खुशियां होती थी।
उसके इर्द गिर्द हमारा पूरा संसार बसता था।
उसकी जरूरते पूरा करते वक्त चलता था।
आज कतराता है मिलने,
वृद्धाश्रम मे मेरा अपना ,
सोचता हूँ, क्या यही है,
वह हमारा अज़ीज सपना?
कहने को तो सब उसको दोष देते है,
कभी कभी हमसे भी हमदर्दी करते हैं,
पर दोष किसका था ?
मेरी दिलायी उस खोखली विदेशी शिक्षा का
या दिखावटी परम्पराओं के प्रति आस्था का
अंतर्मन मे आज छिड़ा यह द्वन्द है
जीवन मे मैने कभी जिसको महत्व न दिया था
संस्कारों का शिक्षा में कभी जिक्र न किया था
झूठी तृष्णा के पीछे, यह मन भाग रहा था ,
अपनी नजरों में ,खुद को ही दोषी पा रहा था।
