ब्लैक होल
ब्लैक होल


बजरे पर बंधी वो नाव
हिलकोरे ले रही
प्रेम में डूबना
हिचकोले खाना
चिनार के पत्ते
पर बैठ पहाड़ों पर
रक्ताभ हो
उड़ता प्रेम
टह टह टपकता
खुशबुओं से सराबोर
मन कैसे सजे ,
प्रेम अपराध है,
यही तो सुनाया
जनाया सबने
प्रेम कैसा होता है
किधर से आयेगा
क्या पता।
ओह, ऐसा बेखटके
आया
ठिठका, मुस्काया।
फिर
फिर क्या
बौराई, ओस की
बूंद सी
शीतल, पारदर्
शी,
नर्म
उजाला होते
सुख जाती है
ओस,
डरता है प्रेम
हथेलियों की
रेखायें
बड़ी अबूझ,
जितनी नरम
उतनी गरम
जितनी सरल
उतनी विरल
फूलों की बगिया
के बीच
का उजास
उछाह
सुगंध
बेला, चमेली,
रातरानी
खिलती है
चहूँ ओर।
मन कब बैठ
जाता है
समा जाता है
अपने ही निर्धारित
ब्लैक होल में।
प्रेम जस का तस
निरपेक्ष खड़ा
जोहता है बाट ।।