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अंतर रुदन

अंतर रुदन

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प्रमद विहग जा बैठा

जिस आड़ोलित डाली पर,

आज वही जब टूट गई

मैं आ गिरा निम्न थल पर ।

उन्मत्त प्रमद जब ताज बना

धड़ गर्दन से तब अलग हुआ

जिस जिस मंज़िल पर आँख गईं

तभी हुई वह धूल मयी।


मंझधार पहुँच हो नाव चली

डगमग हो नौका डूब गई

प्रातः को जब नमन किया

उसने झट निशि रूप लिया

जब शगुन रूप मैंने देखा

अपशकुन रूप बदला ऐसा

नव प्रभात में ही जीवन

अस्त हुआ देखा यूँ ही

यही पीड़ा आज मेरी

बांह पकड़े है खड़ी

मैं भी उसको अपना माने

उससे जोड़े हूँ कड़ी ।।


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