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Renu Singh

Abstract

5.0  

Renu Singh

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बाट जोहता है प्रेम

बाट जोहता है प्रेम

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541


हिलकोरे ले रही

प्रेम में डूबना 

हिचकोले खाना

चिनार के पत्ते 

पर बैठ पहाड़ों पर


रक्ताभ हो 

उड़ता प्रेम

टह टह टपकता 

खुशबुओं से सराबोर

मन कैसे सजे,


प्रेम अपराध है,

यही तो सुनाया

जनाया सबने

प्रेम कैसा होता है

किधर से आयेगा

क्या पता।


ओह, ऐसा बेखटके आया

ठिठका, मुस्काया।

फिर, फिर क्या 

बौराई, ओस की बूंद सी 

शीतल,पारदर्शी, नर्म

उजाला होते।


सुख जाती है

ओस, 

डरता है प्रेम

हथेलियों की रेखायें

बड़ी अबूझ,

जितनी नरम 

उतनी गरम


जितनी सरल

उतनी विरल

फूलों की बगिया के बीच

का उजास

उछाह, सुगंध

बेला,चमेली, रातरानी

खिलती है चहुं ओर।


मन कब बैठ जाता है

समा जाता है

अपने ही निर्धारित 

ब्लैक होल में।

प्रेम जस का तस 

निरपेक्ष खड़ा  

जोहता है बाट।


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