बिटिया
बिटिया
जब जन्मी थी इस जग में मैं, कहते थे घर लक्ष्मी आयी हैं,
सब कष्ट हरेगी ये घर के, भाग अपना लिखा कर लायी है।
ये परी हैं निज घर आंगन की,अपनी यह प्यारी सी गुड़िया,
बस जीवन का संबल अब ये, घर की खुशिओं की है पुड़िया।
ज्यों ज्यों फिर मेरी उम्र बढ़ी, मुझ पर बंधन बढ़ते ही गए,
उनके डर और आशंकाओं के, पर्दे मुझ पर चढ़ते ही गए,
मैं जो थी बाबुल की नन्ही परी, क्यों बोझ सा उन पर लगने लगी,
पहले हर बात जो अच्छी थी, वो अब क्यों उन को चुभने लगी।
क्यों भाता नहीं उनको मेरा,चहकना और हंसना गाना,
क्यों लगे समय के बंधन मुझ पर, बस बन्द हुआ अब आना जाना,
अपने ही घर में मैं क्यों बंदी, हुआ मुझसे भला हैं कौन कसूर,
ये समाज यहां जो विकृत हैं, फिर में क्यों अपने सपनों से दूर।
मैं वस्तु हूँ, अब चीज़ भी में, मैं ही प्रलोभन और सब बीमारी,
सब असमानता हैं मेरे हिस्से, तुम रहे नर, पर में न रही नारी,
अग्निपरीक्षा हो या चीर हरण, मैं ही तो सब सहती आयी,
हर युग में तेरे कर्मों का, मैं प्रायश्चित बस करती आई।
मुझको देवी औऱ शक्ती माना, बस प्रार्थना और कविताओं में,
रही अन्नपूर्णा और लक्ष्मी में बस,केवल ऋषियों की मंत्र ऋचाओं में,
मुझको ही ढोना पड़ता समाज की, सब मर्यादा और बन्धन का बोझ,
इस पितृ आसक्त समाज में बस, करती अपने अस्तित्व की खोज,
बस करती अपने अस्तित्व की खोज।।