बिना मज़मून की कविता
बिना मज़मून की कविता
आज कुछ लिख नहीं पा रही हूँ
सब कुछ तो है लिखने के लिए
कलम है....
कागज़ है....
समय है.....
ख़यालात है....
और मेरे जैसी लफ़्ज़ों की बाज़ीगरी
करने वाली लेखिका भी.....
लेकिन लफ्ज़ जो ख़यालात में आ रहे है
एकदम सीधे सादे से है.....
वह सजे सँवरे लफ्ज़ कहीं मिल ही नहीं रहे है....
न जाने वे सारे कहाँ खो गये?
वे ढेर से शब्द कहीं मेरी पुरानी रचनाओं में ख़त्म तो नहीं हो गए?
मैं डिक्शनरी खोल खोलकर देखने लगती हूँ
लेकिन उसमें सदियों पुराने वाले
बोझील शब्द ही दिख रहे है....
मेरी कविता के लिए कुछ मलमली अहसास वाले लफ्ज़ चाहिए....
मैं फिर आसपास ढूँढने लगती हूँ....
अखबारों और टीवी की खबरों में....
लेकिन उन खबरों में वही सब है जिसे मैं उकता चुकी हूँ....
वही छीनाझपटी और बलात्कार की वारदात वाली ख़बरें.....
मेरा मन फिर बोझिल हो जाता है....
उन लफ़्ज़ों से क्या कोई कविता बनेगी भला?
मुझे मेरी कविता का शीर्षक मुंह चिढ़ाते लगता है.....
