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Baman Chandra Dixit

Abstract

4.5  

Baman Chandra Dixit

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बिखरे पत्तों को

बिखरे पत्तों को

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इक ख्वाब अधूरी रह गयी, चादर आपने खींच लिया

देखा जब आंखें मल कर, इशारा आपका मिल गया।।


नींदों की हर रंगीं तमन्नाओं को बहलाता मैं चला

जागने से पहले आपने खुली आसमाँ दिखा दिया।।


कदम भरना सीखा था पकड़ जिन उंगलियों को,

उसी उंगली ने आज निकलने का राह दिखा दिया।।


कभी चाँद के पीछे पीछे भागते कदमों की चोटों को,

सहला कर ज़ख्मों को, उन दर्दों को भगा दिया।।


बिन मरहम के कभी भर जाते थे कुछ ज़ख्मों के,

निशाँ जो मिट चले थे, आज फिर कौन जगा गया।।


कुछ घावों में दर्द होते मगर, लहू निकलता नहीं,

मगर आपकी चोट उन्हीं पे, और ज़ख्मी कर गया।।


चोंच में भर रखा था जो बंट गया कई चोंचों में,

सोचते सोचते उनकी, खुद सिसकता रह गया।।


ढीले हो चुके पकड़ सूखे शाखों में जिन पत्तों की,

अटूट था जो रिश्ता दरमियां , बिखरने पर आ गया।।



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