बिखराव का दर्द
बिखराव का दर्द
ठूंठ बन मैं खड़ा, अंचम्भित सा ठगा सा,
छटपटाता मन, बिखरे बहार सो अश्रु सूखे,
शायद सत्य स्वीकार्य नही, खाली हाथ खड़ा,
ये कैसे अपने है जिसने साथ छोड़ा़,
पक्षी नहीं आते, कीट, पतंंग नहीं आते,
हवा पानी बादल कुुछ नही ठहरतेे,
अब अकेला हो , ठूंठ बन मैं खड़ा,
अतिथि से अपेक्षा कैसी, शिकायत कैैैसी,
परदा हटा तमाशा देखे, चेहरे की लकीरें,
दाग़, धब्बे साफ नजर आ रहे, फुरसत में
होकर पढ़ पढ़ गिना रहे, न कोई दिखावा,
न कोई भावना, रिश्ते निभाने की चिंता नहीं
कुछ गढ़ गढ़ बातें करतेे मैं अनजान नहीं,
परिवार टूूटे, रिश्ते बिखरे, अब मूल्य कम
आंंका देख मेरी विरान काया, खतरनाक
डरावना कह नजर फेरा , मैं दर्द से तड़पा,
अपनों ने उपहास कर मन छलनी किया,
मैं तो परिस्थिति का मारा, परिवार की
संस्कार, संस्कृति की फूल, पत्ती, तानें,
मिट्टी की मजबूत पकड़ बनाये मैं खड़ा
हां पूर्वजों की धरोहर थामें मैं अडिग खड़ा।
ठूंठ बन मैं खड़ा अचंभित सा ठगा सा।