बहू बेटी क्यों ना बन पाए??
बहू बेटी क्यों ना बन पाए??
“बहु नहीं बेटी मैं डोली में बिठाकर लाई हूं"
कहने वाले ऐसे-
हर नए रिश्ते के गठबंधन में हम पाते,
फिर क्यों बेटियों के नाम के साथ
उनके अतीत को भी भूलाते,
इच्छाओं की उनकी पोटली
मायके की दहलीज़ों में ही छोड़ आते,
त्याग सब उसकी ही झोली में क्यों जाते?
डोली में बैठा मायके का पराया धन,
पराया ही समझ कर घर अपने लाते,
माथे में सिंदूर लगते ही,
बहुत खूबसूरती से बेटी से बहू बनाते,
तनों से मुंह दिखाई कर,
घुंघट हो इतने इंच का,
और बिंदी की परिधि उसे समझाते ,
रोज नमक - मिर्च का हिसाब - किताब उसे बताते ,
एक भूल जो हो जाए,
उसका गाना हर रिश्तेदार के वहां गाते ,
ससुराल का अभिमान उस को दिखाते,
बहु नहीं बेटी लाए,
महफिल में यही गुनगुनते ,
प्रपंच देखो रचते कैसे- कैसे ,
उस के कर्तव्यों को अजब- गजब तरीकों से आज़माते ,
घर की बेटी से भी ऐसी परीक्षाएं ले पाते ?
संस्कारों की चुनरिया ओढ़े,
अगर वह ना शर्माए,
लंबी परंपराओं की फ़ेहरिस्त,
गर वह ना अपनाएं,
फिर वह बदमज़ा पुकारी जाएं,
कर्तव्यों को वह समझती हैं,
उसमें ही जीती और उसमें ही मरती हैं,
काबिलियत को उस की ,
अपने घमंड के धुएं में उड़ाते हो,
बस एक चाबी वाली गुड़िया समझ,
अपने इशारों पर नचाना चाहते हो,
बहु को बेटी का मुखौटा पहनाकर,
जलती हुई अखबारों की सुर्खियों को छुपाना चाहते हो,
बहु से बेटी का सफ़र तय करने के लिए,
उसी को क्यों आजमाते हो,
"मैं बेटी ना बन पाई"-
का बोझ उस के कंधो पर क्यों डलवाते हो,
वह बेटी नहीं बन पाई,
देती भी नहीं वह इस की दुहाई,
सदैव से रीत यही चली आई,
कभी बहू बेटी ना बन पाए,
अगर बहू बेटी बन जाए,
तो किसी मां- बाप के आंगन में,
बेटी की अर्थी ना आए,
हां वह बेटी ना बन पाए,
अपने कर्तव्यों की राह से ,
पर कदम उसके न डगमगाए।